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Ambedkar Jayanti 2021: संविधान निर्माता ही नहीं, दिग्गज अर्थशास्त्री भी थे डॉ अंबेडकर

14 अप्रैल 1891 को जन्मे डॉ भीमराव अंबेडकर ने न सिर्फ देश का संविधान बनाने में अहम भूमिका निभाई बल्कि एक इकॉनमिस्ट के तौर पर भी उन्होंने देश के निर्माण में बड़ा योगदान किया 

Ambedkar Jayanti 2021: संविधान निर्माता ही नहीं, दिग्गज अर्थशास्त्री भी थे डॉ अंबेडकर
डॉ भीमराव अंबेडकर ने न सिर्फ देश का संविधान बनाने में अहम भूमिका निभाई बल्कि एक इकॉनमिस्ट के तौर पर भी देश के निर्माण में बड़ा योगदान किया

Ambedkar Jayanti 2021: डॉक्टर भीमराव अंबेडकर का नाम आते ही भारतीय संविधान का जिक्र अपने आप आ जाता है. सारी दुनिया आमतौर पर उन्हें या तो भारतीय संविधान के निर्माण में अहम भूमिका के नाते याद करती है या फिर भेदभाव वाली जाति व्यवस्था की प्रखर आलोचना करने और सामाजिक गैरबराबरी के खिलाफ आवाज उठाने वाले योद्धा के तौर पर. इन दोनों ही रूपों में डॉक्टर अंबेडकर की बेमिसाल भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता. लेकिन डॉक्टर अंबेडकर ने एक दिग्गज अर्थशास्त्री के तौर पर भी देश और दुनिया के पैमाने पर बेहद अहम योगदान दिया, जिसकी चर्चा कम ही होती है.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने वाले देश के पहले अर्थशास्त्री थे डॉ अंबेडकर

 आज भले ही ज्यादातर लोग उन्हें भारतीय संविधान के निर्माता और दलितों के मसीहा के तौर पर याद करते हों,  लेकिन डॉ अंबेडकर ने अपने करियर की शुरुआत एक अर्थशास्त्री के तौर पर की थी. डॉ अंबेडकर किसी अंतरराष्ट्रीय यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में पीएचडी हासिल करने वाले देश के पहले अर्थशास्त्री थे. उन्होंने 1915 में अमेरिका की प्रतिष्ठित कोलंबिया यूनिवर्सिटी से इकॉनमिक्स में एमए की डिग्री हासिल की. इसी विश्वविद्यालय से 1917 में उन्होंने अर्थशास्त्र में पीएचडी भी की. इतना ही नहीं, इसके कुछ बरस बाद उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकॉनमिक्स से भी अर्थशास्त्र में मास्टर और डॉक्टर ऑफ साइंस की डिग्रियां हासिल कीं. खास बात यह है कि इस दौरान बाबा साहेब ने दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों से डिग्रियां हासिल करने के साथ ही साथ अर्थशास्त्र के विषय को अपनी प्रतिभा और अद्वितीय विश्लेषण क्षमता से लगातार समृद्ध भी किया. 

कोलंबिया यूनिवर्सिटी में लिखे रिसर्च पेपर में ईस्ट इंडिया कंपनी की लूट का खुलासा किया

डॉ अंबेडकर ने 1915 में एमए की डिग्री के लिए कोलंबिया यूनिवर्सिटी में 42 पेज का एक डेज़र्टेशन सबमिट किया था. “एडमिनिस्ट्रेशन एंड फाइनेंस ऑफ द ईस्ट इंडिया कंपनी” नाम से लिखे गए इस रिसर्च पेपर में उन्होंने बताया था कि ईस्ट इंडिया कंपनी के आर्थिक तौर-तरीके आम भारतीय नागरिकों के हितों के किस कदर खिलाफ हैं. कई विद्वानों का मानना है कि एमए के एक छात्र के तौर पर लिखे गए इस रिसर्च पेपर में डॉ अंबेडकर ने जिस तरह बेजोड़ तार्किक क्षमता के साथ दलीलें पेश की हैं,वो उनकी बेमिसाल प्रतिभा का सबूत हैं.  

युवा अंबेडकर के लेख ने भारतीय जनता के आर्थिक शोषण को उजागर किया  

डॉ अंबेडकर ने इस रिसर्च पेपर में ब्रिटिश राज की नीतियों की धारदार आलोचना करते हुए तथ्यों और आंकड़ों की मदद से साबित किया है कि ब्रिटेन की आर्थिक नीतियों ने भारतीय जनता को किस तरह बर्बाद करने का काम किया है. उन्होंने यह भी बताया है कि अंग्रेजी राज ‘ट्रिब्यूट’’ और ‘ट्रांसफर’ के नाम पर किस तरह भारतीय संपदा की लूट करता रहा है. अंबेडकर ने इस लेख में ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों भारतीय जनता के शोषण को जिस तरह ठोस आर्थिक दलीलों के जरिये साबित किया है, वह उनकी गहरी देशभक्ति की मिसाल है. एमए के युवा छात्र के तौर पर लिखे गए डॉक्टर अंबेडकर के इस रिसर्च पेपर की तुलना कई विद्वान दादा भाई नौरोजी की किताब ‘पॉवर्टी एंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया’ से भी करते हैं, जिसमें भारतीय संपदा की अंग्रेजी राज में हुई लूट का विश्लेषण करने वाली पहली अहम किताब माना जाता है.

पीएचडी की थीसिस बनी पब्लिक फाइनेंस की अहम किताब

डॉक्टर अंबेडकर ने 1917 में कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पीएचडी के लिए जो थीसिस पेश की वह 1925 में एक किताब की शक्ल में प्रकाशित भी हुई. ‘प्रॉविन्शियल फाइनेंस इन ब्रिटिश इंडिया’ के नाम से छपी इस किताब को पब्लिक फाइनेंस की थियरी में अहम योगदान करने वाला माना जाता है. इस किताब में उन्होंने 1833 से 1921 के दरम्यान ब्रिटिश इंडिया में केंद्र और राज्य सरकारों के वित्तीय संबंधों की शानदार समीक्षा की है. उनके इस विश्लेषण को उस वक्त भी सारी दुनिया में बड़े पैमाने पर तारीफ मिली थी. 

कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पोलिटिकल इकॉनमी के प्रोफेसर और जाने माने विद्वान एडविन रॉबर्ट सेलिगमैन ने डॉ अंबेडकर की इस पीएचडी थीसिस की तारीफ करते हुए कहा था उन्होंने इस विषय पर इससे ज्यादा गहरा और व्यापक अध्ययन सारी दुनिया में कहीं नहीं देखा है. डॉ अंबेडकर की इस किताब को पब्लिक फाइनेंस की थ्योरी, खास तौर पर फेडरल फाइनेंस के क्षेत्र में अहम योगदान करने के लिए जाना जाता है.

वित्त आयोग की स्थापना में डॉ अंबेडकर की थीसिस का बड़ा योगदान  

बाबा साहब ने बरसों पहले पीएचडी की थीसिस के तौर पर केंद्र और राज्यों के वित्तीय संबंधों के बारे में जो तर्क और विचार पेश किए, उसे आजादी के बाद भारत में केंद्र और राज्यों के आर्थिक संबंधों का खाका तैयार करने के लिहाज से बेहद प्रासंगिक माना जाता है. कई विद्वानों का तो मानना है कि भारत में वित्त आयोग के गठन का बीज डॉ अंबेडकर की इसी थीसिस में निहित है.

भारतीय कृषि की समस्याओं और छिपी हुई बेरोजगारी पर डाली रौशनी

1918 में उन्होंने खेती और फॉर्म होल्डिंग्स के मुद्दे पर एक अहम लेख लिखा, जो इंडियन इकनॉमिक सोसायटी के जर्नल में प्रकाशित हुआ. इस लेख में उन्होंने भारत में कृषि भूमि के छोटे-छोटे खेतों में बंटे होने से जुड़ी समस्याओं पर रौशनी डालते हुए कहा था कि कृषि भूमि पर आबादी की निर्भरता घटाने का उपाय औद्योगीकरण ही हो सकता है. खास बात यह है कि अंबेडकर ने अपने इस लेख में छिपी हुई बेरोजगारी (Disguised Unemployment) की समस्या को उस वक्त पहचान लिया था, जब यह अवधारणा अर्थशास्त्र की दुनिया में चर्चित भी नहीं हुई थी. इतना ही नहीं, उन्होंने दिग्गज अर्थशास्त्री आर्थर लुइस से करीब तीन दशक पहले इस लेख में अर्थव्यवस्था के टू-सेक्टर मॉडल की पहचान भी कर ली थी. 

अर्थशास्त्री अंबेडकर की सबसे चर्चित किताब: ‘द प्रॉब्लम ऑफ द रुपी’

एक अर्थशास्त्री के तौर पर डॉ अंबेडकर की सबसे चर्चित किताब है ‘द प्रॉब्लम ऑफ द रुपी : इट्स ओरिजिन एंड इट्स सॉल्यूशन.’ 1923 में प्रकाशित हुई इस किताब में अंबेडकर ने जिस धारदार तरीके से अर्थशास्त्र के बड़े पुरोधा जॉन मेयनॉर्ड कीन्स के विचारों की आलोचना पेश की है, वह इकनॉमिक पॉलिसी और मौद्रिक अर्थशास्त्र पर उनकी जबरदस्त पकड़ का प्रमाण है. कीन्स ने करेंसी के लिए गोल्ड एक्सचेंज स्टैंडर्ड की वकालत की थी, जबकि अंबेडकर ने अपनी किताब में गोल्ड स्टैंडर्ड की जबरदस्त पैरवी करते हुए उसे कीमतों की स्थिरता और गरीबों के हित में बताया था. 

भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना में डॉ. अंबेडकर की आर्थिक सोच का असर

अपनी इस किताब में अंबेडकर ने न सिर्फ यह समझाया है कि सन 1800 से 1920 के दरम्यान भारतीय करेंसी को किन समस्याओं से जूझना पड़ा, बल्कि इसमें उन्होंने भारत के लिए एक माकूल करेंसी सिस्टम का खाका भी पेश किया था. उन्होंने 1925 में रॉयल कमीशन ऑन इंडियन करेंसी एंड फाइनेंस के सामने भी अपने विचारों को पूरी मजबूती के साथ रखा. अंग्रेज सरकार ने अंबेडकर के आर्थिक सुझावों पर भले ही अमल नहीं किया, लेकिन जानकारों का मानना है कि उन्होंने भारतीय करेंसी सिस्टम का जो खाका पेश किया, उसका रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना में बड़ा योगदान रहा है. 

आधुनिक भारत का आर्थिक ढांचा विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई

डॉ अंबेडकर ने सिर्फ आर्थिक सिद्धांतों और विश्लेषण के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान किया, बल्कि आजादी के बाद सरकार का हिस्सा बनकर भी उन्होंने कई ऐसे काम किए, जिसमें उनकी गहरी आर्थिक सूझबूझ का लाभ देश को मिला. श्रम कानूनों से लेकर रिवर वैली प्रोजेक्ट्स और देश के तमाम हिस्सों तक बिजली पहुंचाने के लिए जरूरी बुनियादी  ढांचे के विकास तक कई ऐसे काम हैं, जो डॉ अंबेडकर के मार्गदर्शन में शुरू हुए. 

स्वामीनाथन से कई दशक पहले कृषि लागत से 50 फीसदी ज्यादा MSP का सुझाव दिया

अंबेडकर की आर्थिक दूरदृष्टि का अंदाजा आप इस बात से भी लगा सकते हैं कि एम एस स्वामीनाथन कमीशन की सिफारिश सामने आने के दशकों पहले उन्होंने सुझाव दिया था कि कृषि उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) लागत से कम से कम 50 फीसदी ज्यादा होना चाहिए.  कृषि क्षेत्र के विकास में वैज्ञानिक उपलब्धियों के साथ-साथ लैंड रिफॉर्म की अहमियत पर भी उन्होंने काफी पहले जोर दिया था. 

बिजली-पानी जैसे अहम क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे के विकास में योगदान

देश में सेंट्रल वाटर कमीशन और सेंट्रल इलेक्ट्रीसिटी अथॉरिटी जैसी अहम संस्थाओं की शुरुआत भी उनके नेतृत्व में हुई थी. देश में बिजली के ढांचे के विकास का खाका 1940 के दशक में उस वक्त तैयार किया गया था, जब डॉ अंबेडकर पॉलिसी कमेटी ऑन पब्लिक वर्क्स एंड इलेक्ट्रिक पावर के चेयरमैन हुआ करते थे. उनका मानना था कि देश को औद्योगिक विकास के रास्ते पर आगे ले जाने के लिए देश के तमाम इलाकों में पर्याप्त और सस्ती बिजली मुहैया कराना जरूरी है और इसके लिए एक सेंट्रलाइज़्ड सिस्टम होना चाहिए.

आर्थिक विकास में महिलाओं, श्रमिकों की भूमिका पर जोर

देश के आर्थिक विकास में महिलाओं के योगदान की अहमियत को हाइलाइट करने का काम भी अंबेडकर ने उस दौर में किया था, जब इस बारे में कम ही लोग बात करते थे या इस मसले की समझ रखते थे. महिलाओं को आर्थिक वर्कफोर्स का हिस्सा बनाने के लिए मातृत्व अवकाश जैसी जरूरी अवधारणा को भी डॉ अंबेडकर ने ही कानूनी जामा पहनाया था. श्रमिकों को सरकार की तरफ से इंश्योरेंस दिए जाने और लेबर से जुड़े आंकड़ों के संकलन और प्रकाशन का विचार भी मूल रूप से डॉ अंबेडकर ने दिया था. इसके अलावा गरीबी उन्मूलन, शिक्षा-औद्योगीकरण और बुनियादी सुविधाओं की अहमियत जैसे कई मसलों पर देश को डॉक्टर अंबेडकर के अनुभव और अर्थशास्त्री के तौर पर उनके ज्ञान का लाभ मिला.

आज उनके जन्मदिन के मौके पर संविधान निर्माता बाबा साहेब के साथ ही अर्थशास्त्री अंबेडकर को याद करना इसलिए भी प्रासंगिक है, क्योंकि देश में संवैधानिक लोकतंत्र और इकॉनमी दोनों की मौजूदा हालत, चर्चाओं और आलोचनाओं के केंद्र में हैं.

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First published on: 14-04-2021 at 09:18 IST

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